देहरादून : कांग्रेस महासचिव और प्रदेश में पार्टी चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हरीश रावत ने उत्तराखंड विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले गत दिसंबर में यह आरोप लगाकर हलचल मचा दी थी कि उनकी पार्टी के नेता असहयोग कर रहे हैं और कभी-कभी उनकी इच्छा सब छोड़ देने की होती है। इसके बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी को प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी में चल रही गुटबाजी को थामने के लिए खुद सामने आना पड़ा था।
हालांकि, कांग्रेस नेतृत्व के ये प्रयास प्रदेश में पार्टी की संभावनाओं को मजबूत करने के लिए नाकाफी रहे और उसके मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार माने जा रहे रावत लालकुआं सीट से भाजपा के मोहन सिंह बिष्ट के हाथों 17,527 मतों के अंतर से पराजित हो गए।
पूर्व मुख्यमंत्री को पहले रामनगर सीट से चुनाव में उतारा गया था। हालांकि, मित्र से विरोधी बने पार्टी की प्रदेश इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष रणजीत सिंह रावत के जबरदस्त विरोध के बाद उन्हें लालकुआं से टिकट दिया गया।
पिछले विधानसभा चुनाव में रावत ने मुख्यमंत्री रहते हुए दो सीट से चुनाव लड़ा था लेकिन दोनों सीट पर ही उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उन्हें नैनीताल सीट पर अजय भट्ट के हाथों पराजय मिली। लगातार एक के बाद एक हार ने पांच बार के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिहन भी लगा दिया है।
अल्मोड़ा जिले के मोहनरी गांव में कुमाऊंनी राजपूत परिवार में जन्मे 73 वर्षीय रावत ने लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून की स्नातक डिग्री ली है। पार्टी में कई महत्वपूर्ण पद संभालने वाले रावत प्रदेश कांग्रेस इकाई के अध्यक्ष भी रहे हैं। केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार के समय वह जल संसाधन मंत्री थे।
केदारनाथ त्रासदी के बाद विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद 2014 में रावत प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालांकि, केवल दो वर्षों के बाद ही उन्हें बहुगुणा के नेतृत्व में 10 कांग्रेस विधायकों की बगावत का सामना भी करना पड़ा जिससे उनकी सरकार अल्पमत में आ गई। प्रदेश में उस समय राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था लेकिन बाद में सदन में शक्ति परीक्षण में सफल रहने के बाद वह दोबारा मुख्यमंत्री बन गए।
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बाद उन्हें पार्टी महासचिव बनाया गया और पहले असम तथा बाद में पंजाब का प्रभार दिया गया। उनके पंजाब प्रभारी रहने के दौरान कैप्टन अमरिंदर को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। उत्तराखंड में पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारियों को देखते हुए उन्होंने पार्टी नेतृत्व से पंजाब प्रभार से मुक्त किए जाने का आग्रह किया था ताकि वह प्रदेश की राजनीति पर ध्यान दे सकें.