नई दिल्ली : टोक्यो ओलिंपिक में रजत पदक पर कब्जा जमाने वालीं मीराबाई चानू ओलिंपिक में पदक जीतने वालीं भारत की दूसरी भारोत्तोलक बन गई हैं। चानू का जीवन संघर्ष से भरा रहा है। मीराबाई का बचपन पहाड़ से जलावन की लकड़ियां बीनते बीता।
वह बचपन से ही भारी वजन उठाने में मास्टर रही हैं। आठ अगस्त 1994 को मणिपुर के नोंगपेक काकचिंग गांव में जन्मी मीराबाई का सपना तीरंदाज बनने का था, लेकिन किन्हीं कारणों से उन्हें भारोत्तोलन को अपना करियर चुनना पड़ा।
कुंजारानी से मिली प्रेरणा : तीरंदाज बनने की चाह के बीच कक्षा आठ तक आते-आते उनका लक्ष्य बदल गया, क्योंकि आठवीं की किताब में मशहूर भारोत्तोलक कुंजारानी देवी का जिक्र था।
इंफाल की ही रहने वाली कुंजारानी भारतीय भारोत्तोलन इतिहास की दिग्गज महिलाओं में से हैं। कोई भी भारतीय महिला भारोत्तोलक कुंजारानी से ज्यादा पदक नहीं जीत पाई हैं। बस, तभी कक्षा आठ में तय हो गया कि अब तो वजन ही उठाना है।
इसके साथ ही शुरू हुआ मीराबाई का करियर और साल 2014 में ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों में 48 किग्रा भारवर्ग में उन्होंने भारत के लिए रजत पदक जीता। इसके बाद उनके जीतने का क्रम जारी हो गया और टोक्यो ओलिंपिक में उन्होंने अपने बचपन का ओलिंपिक पदक जीतने का सपना पूरा किया।

मीराबाई की जीत से अगली पीढ़ियां होंगी प्रेरित : बिंद्रा
मीराबाई चानू की जीत से उत्साहित होकर ओलिंपिक स्वर्ण पदक विजेता पूर्व निशानेबाज अभिनव बिंद्रा ने एक पत्र में लिखा कि भारतीय भारोत्तोलक की यह शानदार उपलब्धि ऐसे समय में खुशी की छोटी सी याद का काम करेगी जब देश कोविड-19 महामारी से जूझ रहा है।
बिंद्रा ने बधाई पत्र में लिखा, ‘टोक्यो ओलिंपिक में आपका शानदार प्रदर्शन निश्चित रूप से ओलिंपिक खेलों में किसी भारतीय खिलाड़ी के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के रूप में याद रखा जाएगा और यह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के रूप में भी काम करेगा।
महामारी के इस कठिन दौर में जब जिंदगी अचानक से रुक गई है और जिंदा रहना भी मुश्किल काम बन गया है, ऐसे में आपके जीत का पल सुनहरी याद का काम करेगा।
यह वर्षों की कड़ी मेहनत और एकाग्र दृढ़ संकल्प का ही पुरस्कार है। देश को गौरवान्वित करने के लिए आपने जो बलिदान किए हैं, वो इस अविश्वसनीय उपलब्धि को और भी मीठा बनाते हैं। ‘
मां ने जेवर बेचकर बनवाई थी मीरा के कान की बालियां
मीराबाई चानू के एतिहासिक रजत पदक और उनकी मधुर मुस्कान के अलावा शनिवार को इस भारोत्तोलक के शानदार प्रदर्शन के दौरान उनके कानों में पहनी ओलिंपिक के छल्लों के आकार की बालियों ने भी ध्यान खींचा, जो उनकी मां ने पांच साल पहले अपने जेवर बेचकर उन्हें तोहफे में दी थी। मीराबाई की मां को उम्मीद थी कि इससे उनका भाग्य चमकेगा।
रियो 2016 खेलों में ऐसा नहीं हुआ, लेकिन मीराबाई ने टोक्यो खेलों में पदक जीत लिया और तब से उनकी मां साईखोम ओंग्बी तोंबी लीमा के खुशी के आंसू रुक ही नहीं रहे हैं।
लीमा ने कहा, ‘मैंने बालियां टीवी पर देखी थीं, जो मैंने उसे 2016 में रियो ओलिंपिक से पहले दी थीं।
मैंने इन्हें अपने सोने के जेवर बेचकर और अपनी बचत से बनवाया था, जिससे कि उसका भाग्य चमके और उसे सफलता मिले। इन्हें देखकर मेरे आंसू निकल गए। उसके पिता (साईखोम कृति मेइतेई) की आंखों में भी खुशी के आंसू थे।’